Tuesday, August 30, 2011

कुंवर प्रीतम के मुक्तक


चलो फिर गांव की जानिब,शहर अच्छा नहीं लगता
बेगानों के नगर में अब गुजर अच्छा नहीं लगता
यहां नफरत निगाहों में,वहां रिश्ते मोहब्बत के
बसर अब दूर मिट्टी से,कुंवर अच्छा नहीं लगता
कुंवर प्रीतम


हुयी मेहर तुम्हारी शारदे,नम हुयी आंखें
जो पहुंचे गांव के आंगन,नम हुयी आंखें
किसी की चोट खाकर क्या,किसी को चोट देकर भी
हुआ जख्मी ये दिल पावन, नम हुयी आंखें
कुंवर प्रीतम


दुनिया का दस्तूर गजब,समझ सका है कौन यहां
पल में छांव, धूप अगले पल, समझ सका है कौन यहां
चार दिनों के रैन बसेरे की खातिर क्या ख्वाब बुनें
तन्हाई के आलम में हम रहते हरदम मौन यहां
कुंवर प्रीतम


नंगी आंखों से देखा जब हमने दुनिया का मंजर
मुख में वाणी मीठी लेकिन पीठ के पीछे था खंजर
आज यही आलम दुनिया में,हरसू पसरा है प्रीतम
जिस धरती पर नाज था हमको, आज वही बंजर-बंजर
कुंवर प्रीतम


कैसे कैसे खेल दिखाते हैं संसद में नेताजी
औंधे मुंह गिर जाने को भी जीत बताते नेताजी
संविधान की शपथ पढ़ी पर देश बेचने निकल पड़े
जाने किन-किन देशों में हैं माल जमाते नेताजी
कुंवर प्रीतम


लोकपाल ने याद दिला दी भ्रष्टों को उऩकी नानी
लेकिन पूरी जीत हो गयी, कहना होगा बेमानी
संसद में बैठे लोगों की, हरकत पर विश्वास नहीं
नयी कमेटी होगी सच्ची, ऐसा है आभास नहीं
कुंवर प्रीतम

1 comment:

संजय कुमार चौरसिया said...

सुन्दर अभिव्यक्ति

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