सुन लो, ओ मेरे देश के किसानों !
सुन लो गाँवों,कबीलो में रहने वालों ,
जो पीड़ा तुम सदियों से सहते आए हो
कभी घास की रोटियाँ तो
कभी साहूकार की गालियाँ,
सर झुकाकर खाते आए हो !
घोंटा है गला,दिया है ज़हर तुमने
अपने ही मासूम बच्चों को
देखो,कैसे एक बूढ़े मसीहे ने
उस भूख को अपनी ताक़त बना रखा है
अपने अंदर अस्थि-मांस को गलाकर
दधीचि को जिलाए रखा है !
अपने ही घर में रहे वंचित सदा
छिना है भाग बनाकर तुम्हें ॠणी सदा
उठो,हूंकार भरो ! देखो न बाएँ-दाएँ,
लो दान दधीचि का....
विध्वंस करो उस वृत्तासुर का,
लूटा है जिसने कण-कण तुम्हारे भाग का,
हिसाब लो, अन्न के एक-एक दाने का
खेतों का ,खलिहानों का.....
अपनी माटी के अकूत ख़जाने का !
इस बार मत चूको,
अपने क़दम आगे बढ़ाओ
दधीचि को अब न तिरस्कृत करों....
नारा दो इस बार तुम भी -
"अभी नहीं तो कभी नहीं "
उठो,हूंकार भरो ! देखो न बाएँ-दाएँ,
लो दान दधीचि का
विध्वंस करो वृत्तासुर का !
करो राम की शक्ति पूजा
नहीं कमलनयन तो क्या हुआ?
चढ़ाओ भेंट माँ को दान दधीचि का
नवें दिन माँ भगवती अवतरित हुई थी,
देने वर दशानन के वध का,
सहस्त्र मुख है इस वृत्तासुर के
दया करेंगी माँ भारती ,
होगी अवश्य प्रसन्न एक दिन
देने जीत का आशीर्वाद तुम्हें !
लो दान दधीचि का
विध्वंस करो वृत्तासुर का !
2 comments:
बहुत भाव पूर्ण कविता और शब्द चयन |
बधाई
आशा
आशा जी,आभार !
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