मुझे हमेशा शिकायत होती थी तुमसे
जब भी तुम नहीं लेती थी उस रंगीन,
खूबसूरत कागज को !
पूछती जब क्या है लिखा, इसमें
मैं सर झुकाकर, सकुचा कर......
कह देता था कुछ इतनी ही आवाज में
कि मेरे कहने पर यक़ीन हो जाता था तुम्हें
पर कभी सुन न पाती थी वो एक शब्द !
हाँ, तुम्हें पता था कि इसे 'प्रेमपत्र' ही कहते है
फिर भी बार-बार पूछती थी,
मुझे सकुचाते हुए देखने की ख़ातिर तुम !
चाहत तो बहुत होती थी,मुझे भी तुम लिखो
और सकुचाते हुए तुम्हारे गालों पर सुर्ख़ देख सकूँ !
पर तुमने तो कभी नहीं लिखा था मुझे -
कोई ऐसा पत्र.........
इसलिए कि तुमने न लिए थे मेरे एक भी ?
या लौटा देने के गम से ?
जैसे तुम हरबार लौटा देती थी, पढ़कर....
मेरे पत्रों को बिना कुछ कहे;
आज तुम नहीं पर, तुम्हारे आँखों से देखती है
मेरे हर लफ्ज...एक एक हर्फ़ मुझे ही
और मेरे आँखें पढ़ती है उनको ......
ओह! मेरे लफ्जों को,मेरे हर्फों को
जिया है तुमने इस कदर!
मैंने सिर्फ लिखा भर था जिन्हें,
मेरा नहीं........चीख़ता है दर्द तुम्हारा
मेरे प्रेमपत्र से .......
शायद इसी लिए लौटा देती थी,तुम
अपनी आँखों को इसके हरफ़ों में बसाकर !
अच्छा ही किया था जो तुमने
कभी न लिखा था मुझे कोई प्रेमपत्र !
1 comment:
जज़बातों से सुलगते काग़ज़ के पन्नों पर लिखा अफसाना निहायत ख़ूबसूरत है....
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