Monday, January 9, 2012

मैं रुक गयी होती


जब मैं चली थी तो
तुने रोका नहीं वरना
मैं रुक गयी होती |
यादें साथ थी और
कुछ बातें याद थी 
ख़ुशबू जो आयी होती
तेरे पास आने की तो
मैं रुक गयी होती |
सर पर इल्ज़ाम और
अश्कों का ज़खीरा ले
मुझे जाना तो पड़ा
बेकसूर समझा होता तो
मैं रुक गयी होती |
तेरे गुरुर से पनपी 
इल्तज़ा ले गयी
मुझे तुझसे इतना दूर
उस वक़्त जो तुने 
नज़रें मिलायी होती तो
मैं रुक गयी होती |
खफा थी मैं तुझसे 
या तू ज़ुदा था मुझसे
उन खार भरी राह में
तुने रोका होता तो शायद 
मैं रुक गयी होती |
बस हाथ बढाया होता 
मुझे अपना बनाया होता 
दो घड़ी रुक बातें 
जो की होती तुमने तो 
ठहर जाते ये कदम और 
मैं रुक गयी होती |
_------ "दीप्ति शर्मा "





4 comments:

vidya said...

बहुत सुन्दर..
अहं के टकराव अक्सर अलगाव पैदा कर जाते हैं..
बहुत अच्छी रचना.

Mamta Bajpai said...

bahut sundar ....aksar ek dusre kaa abhiman hi alg kar deta hai ..badhai

deepti sharma said...

sahi kaha aapne
sukriya mamta ji

निवेदिता श्रीवास्तव said...

nice ....

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