Friday, March 16, 2012

दफ्तर



आधुनिक अट्टालिका में तीस माले
तीसवें माले पे जालिम एक दफ्तर
खूबसूरती है बला की इसके अन्दर
जैसे कमसिन एक बाला हो ये दफ्तर
दस बजे से शाम के कब छह बजे
भूल जाओगे कभी जो आए दफ्तर
गेट पर मुच्छड़ मिलेगा, डरना मत
पार करते ही दिखेगी मैडमे-दफ्तर
क्या कहर ढाती है तंग लिबास में
हर कोई फिसला, जो आया होगा दफ्तर
नौजवानों की है लम्बी फौज,पर
गप्पें ज्यादा, काम कम करता है दफ्तर
बॉस को सर-सर कहें पर जब कभी
टूअर पर जाएं वो, सोता है ये दफ्तर
बैंक के कर्जों की लम्बी देनदारी
पर हमेशा मस्ती में रहता है दफ्तर
सीए, सीएस, एमबीए की है खटाल
जो यहां आया, फंसा लेता है दफ्तर
यार अप्पन, भूल से कल आ गए थे
हो गए निढाल, जो देखा ये दफ्तर
टांग सबने तोड़ डाली हिन्दी की
जूठनें अंग्रेज की खाता है दफ्तर

-कुंवर प्रीतम

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दफ्तर का बखान बहुत ढंग से किया है।

संजय कुमार चौरसिया said...

shandaar prastuti, badhai

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...