Sunday, August 12, 2012

त्रस्त है.....अभ्यस्त है

इन्हें शब्दों के बिखरे टुकड़े कहना सही रहेगा । अलग अलग समय पर अलग अलग मूड मे लिखे कुछ शब्दों को एक करने की कोशिश कर के यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ--

जनता त्रस्त है,पार्षद मस्त है
मेयर व्यस्त है,विधायक भ्रष्ट है
सांसद को कष्ट है ,मौसम भी पस्त है

कहीं गरज है, छींटे हैं ,बौछारें हैं
कहीं सूखा है,बाढ़ है ,कातिल फुहारें हैं

दरवाजों के बाहर , कहीं जूठन फिक रही है
कहीं कुलबुलाती आँतें,और आँखें सिसक रही हैं

कहीं सड़ता गेहूं -चावल, बह कर के बारिश में
फिर भी 'वो' समझते हैं,फैले हाथ मोबाइल की फरमाइश मे

अब क्या कहें कि गहराते अँधेरों में
सच का उजाला तो गहरी नींद में हसीन सपना है
सोच रहा हूँ परायों की रंगीन बस्ती में
किस मुखौटे के पीछे कौन सा चेहरा अपना है 

है यही सच कि कोई माने या न माने -
पस्त है कष्ट, और भ्रष्ट व्यस्त है
मस्त है खुद में 'आम',त्रस्त है ,अभ्यस्त है

©यशवन्त माथुर©

3 comments:

Mamta Bajpai said...

यशवंत जी सही लिखा है ...बिलकुल ऐसा ही है चारों तरफ सच को उजागर करती रचना

प्रवीण पाण्डेय said...

मचा हुआ है, बमचक बमचक..

Madan Mohan Saxena said...

बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...
बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!
शुभकामनायें.

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