Thursday, December 26, 2013

हाँ मैं दलित स्त्री हूँ


मैं तो  बरसों  की भाँती

आज भी यहीं हूँ

तुम्हारे साथ

पर तुम्हारी सोच नहीं बदली

पत्थर तोडते मेरे हाथ

पसीने से तर हुई देह

और तुम्हारी काम दृष्टि

नहीं बदली अब तक

ये हाथों की रेखाएँ

माथे पर पडी सलवटें

बच्चों का पेट नहीं भर सकती

मैं जानती हूँ और तुम भी

कंकाल बन बिस्तर पर पड जाना मेरा

यही चाहते हो तुम

तुम कैसे नहीं सुन पाते सिसकियाँ

भूखे पेट सोते बच्चों की

मेरे भीतर मरती स्त्री की

मैं  दलित हूँ

हाँ मैं दलित स्त्री हूँ

पर लाचार नहीं

भर सकती हूँ पेट

तुम्हारे  बिना

अपना और बच्चों का

अब मेरे घर चूल्हा भी जलेगा

और रोटी भी पकेगी

मेरे बच्चें भूखें नहीं सोयेंगे ।

तुम्हारे कंगूरे , तुम्हारी वासना

तुम्हारी रोटियों , तुम्हारी निगाहों

सब को छोड‌ आई हूँ मैं ।



-- दीप्ति शर्मा

1 comment:

Unknown said...

bahut acha lekha hai badhi ho

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