Thursday, February 27, 2014

दमित इच्छा



इंद्रियों का फैलता जाल
भीतर तक चीरता
माँस के लटके चिथड़े
चोटिल हूँ बताता है
मटर की फली की भाँति
कोई बात कैद है
उस छिलके में
जिसे खोल दूँ तो
ये इंद्रियाँ घेर लेंगी
और भेदती रहेंगी उसे
परत दर परत
लहुलुहाल होने तक
बिसरे खून की छाप के साथ
क्या मोक्ष पा जायेगी
या परत दर परत उतारेगी
अपना वजूद / अस्तित्व
या जल जायेगी
चूल्हें की राख की तरह
वो एक बात
जो अब सुलगने लगी है।

----दीप्ति शर्मा

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