पर्वत पिघल रहे हैं
घास,फूल, पत्तीयाँ
बहकर जमा हो गयीं हैं
एक जगह
हाँ रेगिस्तान जम गया है
मेरे पीछे ऊँट काँप रहा है
बहुत से पक्षी आकर दुबक गये हैं
हुआ क्या ये अचानक
सब बदल रहा
प्रसवकाल में स्त्री
दर्द से कराह रही है,
शिशु भी प्रतिक्षारत !
माँ की गोद में आने को
तभी एक बहस शुरू हुई
गतिविधियों को संभालने की,
वार्तालाप के मध्य ही शुरू हुआ
शिशु का पिघलना
पर्वत की भाँति
फिर जम गया वहाँ मंजर
रूक गयी साँसें
माँ विक्षिप्त
मृत शिशु गोद में लिए
विलाप करती
ठंड में पसीना आना
आखिर कौन समझे
फिर फोन भी नहीं लगते
टावर काम नहीं करते
सीडियों से चढ़ नहीं पा रहे
उतरना सीख लिया है
कहा ना सब बदल रहा है
सच इस अदला बदली में
हम छूट रहे हैं
और ये खुदा है कि
नोट गिनने में व्यस्त है।
©दीप्ति शर्मा
Thursday, August 31, 2017
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
Bahut achcha likhi hai
Post a Comment