कालीन जो बिछ गए उसके मकान में
फर्क कहां रह गया घर-दुकान में
शोहरत से जोड़ने लगा हर शै को यार वो
फूल तक मुरझा गए उसके बगान में
होता जो खानदानी तो मिजाज रखता नर्म
बू अना की आ रही, इस नादान में
पुरखों ने तंगहाली में मजबूत रक्खे पांव
वो मगर उड़ न जाए कल तूफान में
परिन्दा तक न छत पे बैठेगा छांव को
मिट्ठू क्यों बन रहा है अपनी जान में
कुंवर प्रीतम
1 comment:
waah lajabab
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