साठ-पैसठ साला एक बूढ़ा
ट्रेन में भीख नहीं मांगता,
नहीं सुनाता अल्लाह या
राम के गुणगान.....
ना ही रिरियाता है वो दिखाकर
अपनी कटी टाँग !
उसके चेहरे पर है एक चमक
उसी का हवाला देकर
वह बेचता है-
कलम,लाजेंस,खिलौने .....
पर, बेचता नहीं वो
अपने धँसे गालों की
बनावटी मुस्कान,
सिकुड़ी भौंहे और
चढ़ी भृकुटी के मोल!
उसे आदत नहीं इसकी!
वह मुस्काता है,
सूरज की धूप और
माटी की खूशबू से
लहलहाती खेतों को
जब भी दिख जाता
ट्रेन के खिड़कियों से
बाहर उसे !
2 comments:
रचना में बिम्बों का उत्तम प्रयोग।
बहुत ही शानदार रचना है.
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