सुनसान सी राह
और छाया अँधेरा
गिरे हुए पत्ते
उड़ती हुयी धूल
उस लम्बी राह में
मैं अकेली थी ।
चली जा रही
सब कुछ भूले
ना कोई निशां
ना कोई मंजिल
उस अँधेरी राह में
मैं अकेली थी ।
तभी एक मकां
दिखा रस्ते में
बिन सोचे मैं
वहाँ दाखिल हुयी
उजाला तो था
चिरागों का पर
उन चिरागों में
मैं अकेली थी ।
रुकी वहाँ और
सोचा मैंने है कोई
नहीं यहाँ तो चलूं
आगे के रस्ते में
फिर निकल पड़ी
पर उस रस्ते पर
मैं अकेली थी ।
छोड़ दिया उस
मकां का रस्ता
देखा बाहर जो मैंने
उजाला था राह में
लोग खड़े थे
मेरे इंतजार में
वहाँ ना अँधेरा था
ना ही विराना
बस था साथ
और विश्वास
उन सबके साथ
उस साये में
आकर फिर
मैंने सोचा
क्या सच में
मैं अकेली थी
या ये सिर्फ
एक पहेली थी ।
©.दीप्ति शर्मा
5 comments:
bahut sundar
बहुत बढ़िया....
विश्वास का साथ तो फिर भी बना ही रहता है।
बहुत खूब!!
दिल से निकली सुंदर कविता।
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