उन ऊँची चोटियों को
कितना अभिमान है
उन पर पड़ रही
स्वर्णिम किरणों का
आधार ही तो
उनका श्रृंगार है ।
घाटियों की गहराई
विजन में ज़ज़्ब
यादों की अवहित्था
इनकी मिसाल है
उन ऊँची चोटियों को
कितना अभिमान है ।
तासीर देते वो एकांत
में खड़े मौन वृक्ष
उन चोटियों की
अटूट पहचान है
जर्रे जर्रे में महकती
चोटियों को छूती
वो मन्द मन्द पवन
हर कूचे में सरेआम है
उन ऊँची चोटियों को
कितना अभिमान है ।
© दीप्ति शर्मा
2 comments:
हाँ ....उचा होना बड़ी बात है पर ......अभिमान ??
टिकता नहीं है किसी का भी .......
इसलिए ...मुझे लगता है ऊंचाई के साथ विनम्र भी होना चाहिए चोटियों को
अच्छी रचना के लिए बधाई
वाह दीप्ति वाह............अत्यंत सुन्दर रचना !!!
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