Sunday, December 23, 2012

शब्द

वो शब्द छोड़ दिये हैं असहाय
विचरने को खुले आसमान में
वो असहाय हैं, निरुत्तर हैं
कुछ कह नहीं पा रहे या
कभी सुने नहीं जाते
रौंध दिये जाते हैं सरेआम
इन खुली सड़को पर
संसद भवन के बाहर
और न्यायालय में भी
सब बहरे हैं शायद या
अब मेरे शब्दों में दम नहीं
जो निढाल हो जाते हैं
और अक्सर बैखोफ हो घुमते
कुछ शब्द जो भारी पड़ जाते हैं
मेरे शब्दों से...
आवाज़ तक दबा देते हैं
तो क्यों ना छोड़ दूँ
अपने इन शब्दों को
खुलेआम इन सड़कों पर
विचरने दूँ अंजान लोगों में
शायद यूँ ही आ जाये
सलीका इन्हें जीने का ।
© दीप्ति शर्म


5 comments:

दिगम्बर नासवा said...

शब्द चाहें तो आग लगा सकते हैं ...
शब्दों को आंदोलित करना जरूरी है ...

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्द कहाँ चिंतित रहते हैं, कागज पर आधार ढूढ़ ही लेते हैं।

Unknown said...

shabdo ko dhar dete rahne ka anand hi alag hai

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत खूब ..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सुंदर प्रस्तुति

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