Thursday, January 17, 2013

उल्लू जैसे सपने

दिन के उजाले में
सो जाते हैं सपने
रात के अंधेरे में
जाग जाते हैं सपने

अपने से लगते हैं
कभी पराए से लगते हैं
रोते हैं खौफ से
कभी बिंदास हँसते हैं

रंग बदलते हैं सपने
यूं तो गिरगिट की तरह
नीरस स्वाद की तरह
खुद को दोहराते हैं सपने

मतलबी बन कर
तो कभी बेमतलब ही सही
ख्यालों की शाख पे 
उल्लू जैसे नज़र आते हैं सपने।  

©यशवन्त माथुर©

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