डर सा लगता है 
अकेले चलने में 
अँधियारे और तन्हा से 
उन सुनसान रस्तों पर ।
जहाँ कोई नहीं गुजरता 
बस एक एहसास है मेरा 
जो विचरता है ठहरता है 
और फिर चल पड़ता है 
उन सुनसान रस्तों पर ।
चौराहे तो बहुत हैं पर 
कोई सिग्नल नही 
ना कोई आवाज़ आती है 
जो रोक सके मुझे 
उन सुनसान रस्तों पर ।
गहरे कोहरे और 
जोरदार बारिश में भी 
पलते हैं ख्याल 
जो उड़ते दिखायी देते हैं 
बादलों की तरह 
और मेरा साथ देते हैं 
उन सुनसान रस्तों पर ।
मैं तो बस चलती हूँ 
अपने अहसास लिये 
कुछ ख़्वाब लिये और 
छोड़ जाती हूँ पदचाप 
मंज़िल पाने की चाह में 
उन सुनसान रस्तों पर ।
©  दीप्ति शर्मा 
 

2 comments:
sach kaha darna jaruri hai
वाह.बेह्तरीन अभिव्यक्ति
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