कितने ही सवालों के
कितने ही मोड़ों
और रास्तों से गुज़र कर
आखिरी जवाब
जब पाता है
खुद को
किसी किताब के पन्नों पर
छपा हुआ
या मूंह से निकले शब्दों के साथ
घुल जाता है
हवा में -
तब
तीखी धूप में लहराती
खुद की काली परछाई बन कर
या घुप्प अंधेरे में
किसी कोर से झाँकती
रोशनी की लकीर बन कर
जीने का दे संबल कर
परिवर्धन की आस में
मिटने को उतावले -
सम्पादन को बावले
अक्षरों की संगत में
कराता है
खुद के होने का एहसास!
©यशवन्त माथुर©
कितने ही मोड़ों
और रास्तों से गुज़र कर
आखिरी जवाब
जब पाता है
खुद को
किसी किताब के पन्नों पर
छपा हुआ
या मूंह से निकले शब्दों के साथ
घुल जाता है
हवा में -
तब
तीखी धूप में लहराती
खुद की काली परछाई बन कर
या घुप्प अंधेरे में
किसी कोर से झाँकती
रोशनी की लकीर बन कर
जीने का दे संबल कर
परिवर्धन की आस में
मिटने को उतावले -
सम्पादन को बावले
अक्षरों की संगत में
कराता है
खुद के होने का एहसास!
©यशवन्त माथुर©
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