Tuesday, February 26, 2013

अनकही बातें

बसंत की
इस खिली धूप की तरह 
बगीचों मे खिले फूलों की तरह
खुली और मंद हवा में
झूमते हुए 
बाहर की दुनिया देखने को बेताब 
मन के भीतर की
अनकही बातें
शैतान बच्चे की तरह
करने लगी हैं जिद्द
शब्दों और अक्षरों के
साँचे में ढल कर
कागज पर उतर जाने को

मेरी पेशानी पर
पड़ रहे हैं बल
दुविधा में
कहाँ से लाऊं
अनगिनत साँचे
और कैसे ढालूँ
बातों को
उनके मनचाहे आकार में
न मेरे पास चाक है
न ही कुम्हार हूँ

बस यूं ही
करता रहता हूँ कोशिश
गढ़ता रहता हूँ  
टेढ़े-मेढ़े
बेडौल आकार
क्योंकि मेरे पास
कला नहीं
रस,छंद और अलंकार की।

©यशवन्त माथुर©

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

मन तो सरलतम शब्दों में व्यक्त हो जाता है।

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