बसंत की
इस खिली धूप की तरह
बगीचों मे खिले फूलों की तरह
खुली और मंद हवा में
झूमते हुए
बाहर की दुनिया देखने को बेताब
मन के भीतर की
अनकही बातें
शैतान बच्चे की तरह
करने लगी हैं जिद्द
शब्दों और अक्षरों के
साँचे में ढल कर
कागज पर उतर जाने को
मेरी पेशानी पर
पड़ रहे हैं बल
दुविधा में
कहाँ से लाऊं
अनगिनत साँचे
और कैसे ढालूँ
बातों को
उनके मनचाहे आकार में
न मेरे पास चाक है
न ही कुम्हार हूँ
बस यूं ही
करता रहता हूँ कोशिश
गढ़ता रहता हूँ
टेढ़े-मेढ़े
बेडौल आकार
क्योंकि मेरे पास
कला नहीं
रस,छंद और अलंकार की।
©यशवन्त माथुर©
1 comment:
मन तो सरलतम शब्दों में व्यक्त हो जाता है।
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