Friday, February 15, 2013

दुविधा

मेरे कमरे में अब
धूप नहीं आती
खिड़कियाँ खुली रहती हैं
हल्की सी रौशनी है
मन्द मन्द सी हवा
गुजरती है वहाँ से
तोड़ती है खामोशी
या शुरू करती है
कोई सिलसिला
किसी बात के शुरू होने
से खतम होने तक का ।
कुछ पक्षी विचरते हैं
आवाज़ करते हैं
तोड़ देते हैं अचानक
गहरी निद्रा को
या आभासी तन्द्रा को ।
कभी बिखरती है
कोई खुशबू फूलों की
अच्छी सी लगती है
मन को सूकून सा देती है
पर फिर भी
नहीं निकलता
सूनापन वो अकेलापन
एक अंधकार
जो समाया है कहीं
किसी कोने में ।
©दीप्ति शर्मा


6 comments:

Anju (Anu) Chaudhary said...

waah bahut khub

Yashwant R. B. Mathur said...

मन की दुविधा को बहुत अच्छे से उकेरा है। मगर थोड़ी निराशा की झलक भी दिखती है। .....बेहतरीन !

Shekhar Kumawat said...

bahut khub

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

भावपूर्ण अभिव्यक्ति

धीरेन्द्र अस्थाना said...

बेहतरीन भावाभिव्यक्ति !

shalini rastogi said...

दुविधा के पलों को प्रस्तुत करती भावपूर्ण कविता..

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