फुटपाथों पर जो रहगुज़र किया करते हैं
सड़कों पर जो घिसट घिसट कर चला करते हैं
हाथ फैलाकर जो मांगते हैं दो कौर जिंदगी के
सूखी छातियों से चिपट कर जो दूध पीया करते हैं
ईंट ईंट जोड़कर जो बनाते हैं महलों को
पत्थर घिस घिस कर खुद को घिसा करते हैं
तन ढकने को जिनको चीथड़े भी नसीब नहीं
कूड़े के ढेरों में जो खुद को ढूँढा करते हैं
वो क्या जानें क्या दीन क्या ईमान होता है
उनकी नज़रों में तो भगवान भी बेईमान होता है
ये जलवे हैं जिंदगी के ,जलजले कहीं तो हैं
जो इनमे भी जीते हैं, मूर्ख ही तो हैं.
~यशवन्त माथुर©
3 comments:
जीने की कोई न कोई वजह हर कोई ढूंढ ही लेता है ..
sundar aut satyta se paripurn rachna
जान रही, जग बन जायेगा।
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