Friday, July 19, 2013

मच्छर

एक पुरानी रचना

मच्छर

वो गुनगुनाना तुम्हारा
मेरे कानों के आस पास
और मेरा तुम्हें महसूस करना
कभी दिन तो कभी साँझ
हर पहर तुम्हारी आवाज़ जो
गूँजती रहती कानों में
जो सोने तक नहीं देती
गहरी नींद से भी जगा देती
सुना मुझे नित नये गीत
प्रमाद से भर जाते थे तुम
जाने के बाद भी अपना
अहसास छोड़ जाते थे तुम
पर अब ना कोई राग सुनाते हो
तुम मेरे सिरहाने
चुपचाप चले आते हो
तुम ठीक तो हो ना?
कुछ बदले नजर आते हो
मैं नहीं समझ पाती आहट
तुम्हारे आने की
पता तो तब चलता है
जब डंक मारते तुम
रंगे हाथों पकड़े जाते हो
उफ़...
कितने सारे लाल निशान
और उनको खुजलाने का
तोहफ़ा मुफ्त भेंट दे जाते हो
ओ मच्छर सुनो ना...
तुम ये चालाकी मुझे क्यों दिखाते हो
पहले तो अहसास कराते थे
अब बिन कोई राग सुनाए
मुफ्त में काट जाते हो

© दीप्ति शर्मा


No comments:

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...